5 Minutes Read Hindi Story Nisa Rani

विकास की दौड़ और छांव: Hindi Story

Hindi Story

छांव का महत्व

Hindi Story: गाँव बरेलीपुर के बाहर एक पुराना बरगद का पेड़ था। उसकी शाखाएँ चारों ओर फैली थीं और उसकी जड़ें ज़मीन के नीचे गहराई तक फैली हुई थीं। वह पेड़ गाँववालों के लिए सिर्फ एक पेड़ नहीं था—वह एक प्रतीक था, एक छाया, एक स्मृति, और कई कहानियों का साक्षी।

गाँव के बुज़ुर्ग कहते थे कि जब भी कोई मुश्किल में होता, उस पेड़ के नीचे बैठने से उसे समाधान सूझ जाता। बच्चे वहाँ खेलते थे, किसान वहाँ विश्राम करते थे, और पंडितजी वहाँ बैठकर अपनी पोथियाँ पढ़ते थे। मगर समय बदला, और नई पीढ़ी के साथ बदलाव की आंधी भी आई।

गाँव में एक युवक था—नाम था अर्पित। पढ़ाई में तेज़, सपना था बड़ा आदमी बनने का। शहर में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके वह गाँव लौटा तो उसके मन में नया जोश था। वह गाँव को बदलना चाहता था। उसकी आंखों में आधुनिकता के सपने थे—चौड़ी सड़कें, बड़ी इमारतें, और चमचमाते बाज़ार।

एक दिन उसने पंचायत में प्रस्ताव रखा—“गाँव के बाहर जहाँ वो पुराना बरगद का पेड़ है, वहाँ अगर हम एक छोटी फैक्ट्री लगाएं, तो गाँव को रोज़गार मिलेगा। हम वहाँ एक गोदाम बना सकते हैं। पेड़ को काटना पड़ेगा, पर उससे ज़्यादा फायदा होगा।”

पंचायत में कुछ लोग सहमत हुए, कुछ नहीं। बुज़ुर्गों ने विरोध किया, खासकर हरिप्रसाद काका, जो उस पेड़ को अपनी जवानी का साथी मानते थे।

“बेटा अर्पित,” हरिप्रसाद काका बोले, “उस पेड़ की छांव में न जाने कितनों ने सुकून पाया है। वो पेड़ हमारी संस्कृति का हिस्सा है। विकास चाहिए, मगर कीमत इतनी भारी न हो कि हम अपनी जड़ें ही खो बैठें।”

अर्पित ने तर्क दिया, “लेकिन काका, पेड़ से पेट नहीं भरता। फैक्ट्री से रोज़गार मिलेगा। छांव से कुछ नहीं होता अगर पेट में अन्न न हो।”

बहस लंबी चली। अंततः पंचायत ने तय किया कि गाँव के लोग वोट करेंगे। दो दिन बाद, गाँव के चौक पर वोटिंग हुई। नतीजा आया—僅 4 मतों से अर्पित का प्रस्ताव जीत गया। पेड़ काटा जाएगा।

अगले ही दिन लकड़हारे बुलाए गए। आरी चली, शाखाएँ गिरीं, और शाम तक पेड़ का इतिहास धराशायी हो गया। अर्पित खुश था—अब उसका सपना साकार होने वाला था।

फैक्ट्री बनने में तीन महीने लगे। शुरुआत में सब कुछ ठीक चला। कुछ युवाओं को नौकरी मिली, अर्पित को शहर से इन्वेस्टमेंट भी मिला। गाँव का माहौल बदलने लगा।

मगर धीरे-धीरे समस्याएँ उभरने लगीं।

सबसे पहले आया पानी का संकट। पेड़ की जड़ों से जो भूजल ऊपर आता था, वो बंद हो गया। गाँव के कुएँ सूखने लगे। फिर गर्मी बढ़ने लगी। उस बरगद की छांव के बिना खेतों में काम करना मुश्किल हो गया। बच्चों ने खेल का स्थान खो दिया, और किसान आराम का कोना।

कुछ महीनों बाद फैक्ट्री में आग लग गई। कारण था—ज़मीन में फैली पेड़ की पुरानी सूखी जड़ें, जो स्पार्किंग से जल गईं। नुकसान हुआ—फैक्ट्री बंद हो गई। निवेशकों ने हाथ खींच लिए। गाँव को रोजगार नहीं मिला, बल्कि अब ज़मीन भी बंजर होती जा रही थी।

अर्पित टूट गया। उसे समझ नहीं आया कि गलती कहाँ हुई। वह गाँव के मंदिर गया, और वहीं हरिप्रसाद काका बैठे थे।

काका बोले, “अब समझ में आया बेटा? पेड़ सिर्फ लकड़ी नहीं होता। वो धरती को थामता है, जल को रोकता है, हवा को ठंडा करता है, और हमें जीवन देता है। हम जिसे छांव कहते हैं, वो सिर्फ सूरज से बचने की जगह नहीं, बल्कि सोचने की जगह होती है। वहीं बैठकर हमने अपने जीवन के फैसले लिए हैं। जो छांव देता है, उसकी कीमत वक्त आने पर समझ में आती है।”

अर्पित की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने उस दिन ठान लिया—अब वह खुद पेड़ लगाएगा।

अगले दिन से उसने गाँव के बच्चों और युवाओं के साथ मिलकर पौधारोपण शुरू किया। हर महीने एक दिन गाँव के लोग मिलकर पेड़ लगाते। दो साल बीते। सैकड़ों पेड़ उग आए, नई छांव बननी शुरू हुई।

गाँव फिर से हराभरा हुआ। हरिप्रसाद काका तो नहीं रहे, मगर अर्पित अब जब भी किसी को पेड़ के नीचे बैठा देखता, तो मुस्कुरा कर कहता, “यह छांव मुफ्त की नहीं है—यह हमारी समझदारी और प्रकृति के साथ मेलजोल का फल है।”


सीख:

यह कहानी हमें सिखाती है कि विकास ज़रूरी है, लेकिन उसकी कीमत प्रकृति को नुकसान पहुँचाकर नहीं चुकानी चाहिए। छांव का मतलब सिर्फ पेड़ की छाया नहीं है—यह सुकून, संतुलन और समझदारी का प्रतीक है।

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