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मिट्टी की मोहब्बत » Desi Kahani Story

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एक देसी प्रेम कहानी » Desi Kahani Story

गाँव का नाम था रामपुर। हरे-भरे खेत, मिट्टी की खुशबू, और हर सुबह मंदिर की घंटियों की आवाज़ से दिन की शुरुआत होती थी। इसी गाँव में रहता था रघु। उम्र कोई पच्चीस साल, लंबा-चौड़ा नौजवान, मेहनती और सीधा-सादा। पिता बचपन में ही चल बसे थे, माँ ने सिलाई करके पाला था। रघु के पास दो बीघा ज़मीन थी, उसी से गुजर-बसर करता।

रघु के पास ज़्यादा सपने नहीं थे। उसका बस एक सपना था — अपनी माँ को सुख देना और एक दिन एक ऐसी लड़की से शादी करना जो उसके छोटे से घर को हँसी और प्यार से भर दे। लेकिन शादी की बात सुनते ही माँ चिंतित हो जाती, “रघु, अभी तो खुद के लिए भी ठीक से नहीं है, बहू कहाँ से लाएंगे?” रघु हँसकर कहता, “अम्मा, सब हो जाएगा, भगवान ने चाहा तो एक दिन हमारी भी बारी आएगी।”

एक दिन गाँव में एक नया परिवार आया। गाँव की एक पुरानी हवेली जो बरसों से बंद पड़ी थी, वो किसी शहर वाले ने खरीद ली थी। लोग कहते थे, ये परिवार शहर से आया है, पर गाँव की मिट्टी को बहुत मानता है। उसी परिवार में थी एक लड़की — नेहा। सादा सलवार-सूट, बड़ी-बड़ी आँखें, और मनमोहक मुस्कान। नेहा के पिता रिटायर फौजी थे, गाँव में आकर खेती करने का इरादा था उनका।

नेहा अक्सर खेतों की तरफ चली जाती, कभी फूल तोड़ती, कभी मिट्टी में हाथ डालकर कुछ उगाने की कोशिश करती। रघु ने उसे पहली बार अपने खेत के पास देखा। वो हल चला रहा था, और नेहा दूर खड़ी होकर देख रही थी। रघु को लगा, कोई सपना देख रहा है। ऐसे शहर की लड़की, धूप में खड़ी होकर खेत देख रही है? लेकिन नेहा मुस्कराकर बोली, “आप बहुत अच्छा काम करते हो। शहर में तो सब मशीन से होता है, पर आप खुद खेत जोतते हो। अच्छा लगता है ये सब देखना।”

रघु थोड़ा शरमा गया। “जी… आदत है। यही काम आता है बस।”

उसके बाद नेहा कई बार दिखी। कभी खेत के रास्ते में, कभी तालाब किनारे। दोनों के बीच धीरे-धीरे बातें होने लगीं। कभी मौसम की, कभी गाँव की, कभी पुराने किस्सों की। रघु को एहसास भी नहीं हुआ कब उसकी साधारण ज़िंदगी में नेहा एक रंगीन सपना बनकर आ गई। और शायद नेहा को भी, रघु की सादगी, उसकी मेहनत और उसकी आँखों में छिपा अपनापन भाने लगा था।

एक दिन शाम को रघु माँ के साथ बैठा था। माँ ने कहा, “रघु, तुझे कोई बात करनी है क्या? कुछ दिन से खोया-खोया रहता है।” रघु ने झिझकते हुए कहा, “अम्मा, नेहा अच्छी लड़की है। मुझे वो पसंद है।” माँ थोड़ी चौंकी, “शहर की लड़की है, क्या वो गाँव में रह पाएगी? और उसके पिता मानेंगे?”

रघु को खुद भी डर था। लेकिन वो सोच चुका था, अब पीछे नहीं हटेगा।

अगले दिन उसने हिम्मत करके नेहा से अपने दिल की बात कह दी। नेहा चुप रही, कुछ बोली नहीं। सिर्फ इतना कहा, “मैं पापा से बात करूँगी।”

वो रात रघु के लिए बहुत लंबी थी। सोचता रहा, नेहा क्या कहेगी? उसके पिता क्या सोचेंगे? गाँव में क्या बातें होंगी?

अगले दिन नेहा ने बताया कि उसके पिता उससे नाराज़ हो गए थे। बोले, “शहर में जितने रिश्ते आ रहे हैं, और तू एक किसान लड़के को पसंद कर बैठी?”

नेहा ने कहा, “पापा, वो गरीब हो सकता है, लेकिन मेहनती है। और सबसे ज़रूरी बात — वो सच्चा है।”

पिता ने दो दिन का समय माँगा सोचने के लिए।

रघु बेचैन था। वो दिन दो साल जैसे लगे। फिर एक शाम नेहा आई। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, और आँखों में चमक। बोली, “पापा ने हाँ कह दिया।”

रघु की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। माँ ने भी नेहा को गले से लगा लिया। गाँव में बात फैली, कुछ ने कहा ‘शहर की लड़की गाँव में कैसे रहेगी’, कुछ ने कहा ‘रघु की किस्मत खुल गई’। पर रघु और नेहा को किसी की परवाह नहीं थी।

शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं। खेत की मेड़ पर नींबू और मिर्च लटकाई गई — बुरी नजर से बचाने के लिए। रघु खुद मंडप सजाने में लगा रहा, नेहा ने माँ के लिए साड़ी खरीदी। सब कुछ जैसे एक सुंदर सपना था, जो धीरे-धीरे हकीकत बन रहा था।

लेकिन कहानी यहाँ खत्म नहीं हुई। एक तूफान आना बाकी था, जिसने सब कुछ हिला कर रख दिया…

शादी की तारीख पक्की हो गई थी। पूरा गाँव जैसे रघु और नेहा की शादी को लेकर खुश था। रघु पहली बार इतना मुस्कुराता हुआ देखा गया। माँ हर रोज़ कुछ न कुछ तैयारियों में लगी रहती — कभी अचार डालना, कभी पुराने सूट सिलवाना, तो कभी मंदिर जाकर तेल का दीपक जलाना। नेहा भी हर रोज़ आकर माँ से मिलती, साथ में बैठकर बातें करती। दोनों की आपसी समझ और अपनापन देखकर सबको यकीन हो चला था कि ये रिश्ता लंबा चलेगा।

लेकिन किस्मत को जैसे कुछ और मंज़ूर था।

शादी से दस दिन पहले की बात थी। एक शाम नेहा अपने पापा के साथ शहर गई किसी ज़रूरी काम से। अगली सुबह तक लौट आना था। रघु ने अपने मन में गिनती शुरू कर दी थी — अब सिर्फ 9 दिन। पर अगली सुबह नेहा नहीं लौटी। न ही उसके पापा। दोपहर बीत गई, फिर शाम। रघु बेचैन था, माँ को भी चिंता होने लगी।

अगली सुबह गाँव में खबर आई — नेहा के पापा ने शहर में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ शादी की बात चलाई है। नेहा से जबरदस्ती मिलवाया गया एक लड़का जो बड़ा बिज़नेसमैन था। पता चला, रघु से रिश्ता तोड़ने की बात चल रही है। ये सुनकर रघु का कलेजा जैसे धड़ाम से गिर पड़ा।

उसने तुरंत नेहा को कॉल किया, पर मोबाइल स्विच ऑफ था। फिर कई बार मिलाने की कोशिश की, पर कोई जवाब नहीं। दो दिन गुजर गए। रघु की नींद उड़ गई थी। माँ बार-बार समझाती, “बेटा, हो सकता है सब अफवाह हो।” लेकिन रघु की आँखों में जो चिंता थी, वो कुछ और ही कहती।

तीसरे दिन नेहा की एक सहेली ने चुपके से खबर दी — “नेहा को जबरदस्ती शहर में रोक रखा है। वो रोती है, लड़ती है, पर उसके पापा का मन बदल गया है। उन्हें अब शहर का रुतबा पसंद आ रहा है।”

रघु ने ठान लिया, वो चुप नहीं बैठेगा।

अगली सुबह वो पहली बार ट्रेन में बैठा और शहर पहुँचा। नेहा के पापा के रिश्तेदार का पता ढूंढना आसान नहीं था, लेकिन उस सहेली ने कुछ जानकारी दी थी। आखिरकार एक पुराने मोहल्ले की एक बिल्डिंग के दूसरे मंज़िल पर उसका पता चला।

रघु दरवाजे पर गया, दरवाजा खुद नेहा ने खोला। जैसे ही उसकी नज़र रघु पर पड़ी, उसकी आँखें भर आईं। वो कुछ बोलने ही वाली थी कि पीछे से उसके पापा आ गए। उनका चेहरा सख्त था, आँखें गुस्से से भरी हुईं।

“यहाँ क्यों आया तू?” उन्होंने कड़क आवाज़ में पूछा।

रघु ने साहस करके कहा, “मैं नेहा से बात करने आया हूँ। बस दो मिनट दीजिए।”

“कोई ज़रूरत नहीं। हमारी इज़्ज़त के खिलाफ जाकर अब कोई बात नहीं होगी। और ये लड़की अब इस रिश्ते में नहीं है,” उन्होंने गुस्से में कहा।

नेहा पीछे से चिल्लाई, “पापा, मैं आपकी इज़्ज़त समझती हूँ, लेकिन मैं कोई सामान नहीं जिसे एक जगह से दूसरी जगह रख दो। मेरी मर्जी भी कोई चीज़ है या नहीं?”

एक पल को सब चुप हो गए।

रघु ने आगे बढ़कर कहा, “चलिए नेहा कुछ भी नहीं कहती, तब भी मैं चला जाऊँगा। पर अगर उसने एक बार कहा कि वो नहीं आना चाहती, तो मैं हमेशा के लिए हट जाऊँगा।”

नेहा रघु की ओर देखती रही। उसकी आँखें भर आईं। उसने पिता की तरफ देखा और बोली, “पापा, आप ही सिखाते थे कि इंसान को सच्चाई और मेहनत से डरना नहीं चाहिए। फिर आज आप रघु से डर क्यों रहे हैं? वो तो वही है जो आप जैसे आदमी बनने की कोशिश कर रहा है।”

पिता का चेहरा एक पल को बदल गया। फिर वो अंदर जाकर कमरे में बैठ गए।

नेहा ने रघु की ओर देखा और कहा, “चलो, मुझे अपने गाँव ले चलो।”

दोनों बाहर निकले। मोहल्ले के लोग देख रहे थे, पर किसी ने कुछ नहीं कहा।

गाँव लौटते वक्त ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए नेहा ने रघु का हाथ पकड़ लिया। रघु चुपचाप बैठा था। उसने कुछ नहीं कहा, बस उसकी हथेली को हल्के से दबा दिया।

गाँव लौटने पर सब चौंक गए। कोई कह रहा था, “लड़की बाप के खिलाफ जाकर आ गई?”, कोई बोला, “रघु ने शहर से बहू ले ही आया।”

पर माँ ने नेहा को सीने से लगा लिया, जैसे कोई खोई हुई चीज़ फिर मिल गई हो।

शादी अब चुपचाप नहीं, बल्कि पूरे गाँव की आँखों में आँसू और दिल में सुकून लेकर होने वाली थी।

लेकिन कहानी अभी बाकी थी…

शादी की तारीख बदल दी गई, लेकिन अब जो तैयारियाँ हो रही थीं, उनमें डर या चिंता नहीं, बल्कि एक खास सी खुशी थी। रघु और नेहा की जोड़ी अब सिर्फ दो लोगों की पसंद नहीं, गाँव की कहानी बन चुकी थी। हर घर में यही चर्चा होती — “देखा नेहा को? क्या हिम्मत दिखाई!”, “रघु सच में भाग्यशाली है।”

माँ ने झटपट हल्दी पीसवाई, महुआ के पत्तों से मंडप सजवाया, और खेत के कोने पर एक छोटा सा पंडाल बनवा दिया। शादी कोई बड़ी नहीं थी, पर दिलों से जुड़ी हुई थी। रघु ने अपने पिता की पुरानी धोती पहनने की ज़िद की और नेहा ने माँ की दी हुई साड़ी। सब कुछ सीधा-सादा, लेकिन सच्चा।

शादी के दिन जब नेहा ने फूलों का गजरा बाँधा और माँ के गहने पहने, तो वो किसी रानी से कम नहीं लग रही थी। रघु भी थोड़ा नर्वस था, पर उसकी आँखों में गर्व साफ़ झलक रहा था। शादी की सारी रस्में पुरानी परंपराओं से की गईं। पंडित जी ने कहा, “ये विवाह सात जनम का नहीं, सात भरोसे का है — एक-दूसरे पर, वक्त पर, और अपने फैसलों पर।”

शादी के बाद नेहा जब पहली बार रघु के घर आई, तो माँ ने दहलीज पर दीया रखा और कहा, “इस घर में रौशनी तू ही है, बेटी। इसे बुझने मत देना।” नेहा की आँखों में आँसू आ गए। वो अब इस घर की बेटी नहीं, बहू नहीं, एक साथी थी।

शादी के बाद की ज़िंदगी आसान नहीं थी। खेत वही थे, मिट्टी वही, बारिश का इंतज़ार वही — लेकिन अब हर काम दो लोग मिलकर करते थे। नेहा ने खुद खेत में हाथ लगाना शुरू किया। वो किताबें पढ़ती थी, तो खेती के नए तरीके भी सीखकर रघु को बताती। गाँव की औरतें कहतीं, “शहर की लड़की होकर भी ऐसे हल उठाती है, जैसे यहीं की हो।”

रघु को अब अकेलेपन की आदत नहीं रही थी। वो अब थका-हारा खेत से आता, तो नेहा का इंतज़ार रहता। दोनों साथ बैठकर खाना खाते, बातें करते — और कभी-कभी बस चुपचाप एक-दूसरे को देखते। कुछ बातें शब्दों की मोहताज नहीं होतीं।

एक दिन गाँव में बड़ा जलसा हुआ। बाहर से अधिकारी आए थे — किसानों को सम्मान देने। रघु का नाम लिया गया — “इस गाँव का वो किसान जिसने परंपरा और नए तरीकों को मिलाकर खेती में बदलाव लाया।” रघु थोड़ा शर्माया, लेकिन जब उसका नाम बुलाया गया, तो नेहा ने धीरे से कहा, “जाओ, आज मेरा नहीं, तुम्हारा दिन है।”

रघु मंच पर गया, बोलना नहीं आता था, लेकिन उसने जो कहा वो सबके दिल में उतर गया — “हमने कभी बड़ी चीज़ों का सपना नहीं देखा, बस छोटा सा घर और एक-दूसरे का साथ चाहा। जो भी किया, मिलकर किया — खेत भी, लड़ाई भी, और अब ये सम्मान भी।”

गाँव में सबके चेहरे पर मुस्कान थी। नेहा की आँखों में चमक थी, और माँ की आँखों में गर्व।

पर ज़िंदगी में सिर्फ खुशियाँ ही नहीं होतीं। एक दिन गाँव में बाढ़ आई। नहर टूट गई, पानी खेतों में घुस गया। कई फसलें बह गईं। रघु और नेहा के खेत भी डूब गए। महीनों की मेहनत मिट्टी में मिल गई। लोग टूट गए, कई गाँव छोड़ गए, कई कर्ज़ में डूब गए।

रघु चुप था, नेहा ने देखा कि वो फिर उसी पुराने रघु की तरह अकेले सब सहने की कोशिश कर रहा है। एक रात उसने रघु से कहा, “तू फिर से अकेले सब झेलने की कोशिश क्यों कर रहा है? मैं अब तेरी बीवी हूँ, तेरी छाया नहीं।”

रघु की आँखें भर आईं। उसने पहली बार खुलेआम रोया, और नेहा ने उसका सिर अपने कंधे पर रख लिया।

बाढ़ के बाद नेहा ने एक नयी योजना शुरू की — गाँव की औरतों के लिए एक छोटा सा कुटीर उद्योग, जिसमें अचार, पापड़, मसाले बनाए जाते। माँ ने उसे सपोर्ट किया, और गाँव की कई बहुओं ने पहली बार खुद कुछ कमाना शुरू किया।

रघु ने फिर से खेत संभाले। इस बार नई तकनीकों के साथ। बारिश कम हुई, पर मेहनत ज़्यादा हुई।

एक साल बाद उसी जगह फिर से खड़ी थी फसल — हरी, लहराती, और मुस्कुराती।

एक शाम रघु ने खेत में खड़े-खड़े नेहा से कहा, “जब पहली बार तुझे देखा था, तो सोचा था, बस एक सपना है। पर तू तो मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच बन गई।”

नेहा हँसी और बोली, “और तू वो मिट्टी बन गया है, जिसमें मेरा हर सपना उग आया।”

उस दिन सूरज देर तक डूबा नहीं। जैसे उसे भी ये जोड़ी कुछ ज़्यादा ही पसंद आ गई हो।

और यूँ, एक देसी कहानी — जो शुरू हुई थी एक साधारण किसान की ख्वाहिश से, और गुज़री मोहब्बत, संघर्ष, और भरोसे की गलियों से — एक ऐसी ज़िंदगी बन गई जिसे कोई किताब नहीं, दिल ही समझ सकता है।

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