बूंदों की आवाज़: Desi Kahani in Hindi

Desi Kahani in Hindi: ग्राम देवपुरी, उत्तर भारत के हरे-भरे पहाड़ों की गोद में बसा एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ न तो ट्रेन जाती थी, न ही कोई बड़ी सड़क। सालों से वहाँ लोग बैलगाड़ियों और पैदल सफ़र के ज़रिए एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। इस गाँव की सबसे ऊँची जगह पर एक पुरानी हवेली थी—दरारों भरी दीवारें, टूटी हुई छत, और अंदर तक पसरा हुआ सन्नाटा। लोग कहते थे कि रात के सन्नाटे में उस हवेली से बूंदों की आवाज़ आती है—जैसे कोई बैठा बैठा आँगन में पानी के कटोरों को भर रहा हो, या जैसे किसी की रुलाई धीरे-धीरे टपक रही हो।
उसी गाँव में अर्जुन नाम का एक सोलह साल का लड़का अपनी माँ रानी के साथ रहता था। रानी विधवा थी—उसके पति रामकृष्ण की मौत गाँव की पुरानी खान में हुए हादसे में हो गई थी, जब अर्जुन सिर्फ पाँच साल का था। तब से रानी ने मेहनत-मजदूरी करके अपने बेटे को पाला था, उसकी किताबें खरीदीं, उसके लिए हर सपना जिया जिसे अर्जुन ने देखा भी नहीं था।
अर्जुन और उसकी माँ उसी हवेली के एक कोने में किराए पर रहते थे। बाकी का हिस्सा बंद पड़ा था। हवेली रानी के दूर के रिश्तेदार की थी, जिसने शहर में बसने के बाद इसे छोड़ दिया था। अर्जुन अक्सर हवेली के गलियारों में अकेला घूमता, पुरानी दीवारों को छूता और खिड़कियों से झांकता हुआ कुछ सोचता रहता।
बरसात की एक रात थी। बिजली चमक रही थी और हवेली की छत पर टिन की चादरें बूंदों से थरथरा रही थीं। रानी सो चुकी थी, लेकिन अर्जुन की नींद नहीं आ रही थी। उसकी आँखें छत की ओर थीं, और कान उन बूंदों की आवाज़ में कुछ खोज रहे थे—कुछ जो हर बारिश में उसे खींचता था, डराता भी था, मगर रोकता नहीं था।
अर्जुन उठा, चुपचाप चप्पल पहनी और एक मोमबत्ती लेकर हवेली के बंद पड़े हिस्से की ओर बढ़ा। दरवाज़ा पुराने ज़माने का था, जिसकी कुंडी जंग खा चुकी थी। उसने हल्का सा धक्का दिया और दरवाज़ा कर्कश आवाज़ करता हुआ खुल गया। अंदर अंधेरा था—गाढ़ा, भारी और ठहरा हुआ। जैसे सालों से कोई वहाँ नहीं आया हो। दीवारों पर मकड़ियों के जाले थे, फर्श पर धूल की परतें थीं, लेकिन उन सबके बीच कुछ और था—वह आवाज़ जो अर्जुन को अंदर खींच रही थी।
वह धीरे-धीरे भीतर गया, और फिर अचानक कुछ महसूस हुआ—जैसे ज़मीन के नीचे कुछ हिल रहा हो। मोमबत्ती की लौ काँपने लगी। वह आगे बढ़ा और देखा, एक पुराना लोहे का ढक्कन ज़मीन पर जड़ा हुआ था। उसने जैसे ही उसे छूने की कोशिश की, एक ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया और मोमबत्ती बुझ गई।
अर्जुन डर गया, लेकिन वह पीछे नहीं हटा। उसने अपनी जेब से माचिस निकाली और फिर से रोशनी की। ढक्कन के पास उसने ध्यान से देखा तो किनारे पर कुछ उकेरा हुआ था—संस्कृत में कुछ लिखा था, जिसे वह पूरी तरह पढ़ नहीं पाया, लेकिन ‘शिव’ शब्द उसे साफ़ दिखा।
दूसरे दिन वह यह बात अपनी माँ को बताने गया, लेकिन रानी ने साफ़ मना कर दिया। “बेटा, पुरानी जगहों में सिर्फ़ धूल नहीं होती, वहाँ यादें भी दबी होती हैं। कुछ ज़ख्म, कुछ रूहें। तू इन सब से दूर रह। पढ़ाई कर, आगे बढ़।”
मगर अर्जुन की बेचैनी बढ़ती गई। वह अब रोज़ स्कूल से लौटकर हवेली के उस हिस्से में जाता, ढक्कन को देखता, आसपास की चीज़ें खंगालता। कुछ दिनों बाद उसे एक पुराना संदूक मिला, जिसमें एक किताब रखी थी। किताब की जिल्द चमड़े की थी और उस पर लिखा था: “शंकर बाबा की बातें”।
उसने किताब को धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया। उसमें एक योगी का ज़िक्र था, जो कभी इसी हवेली में रहा करते थे। कहते हैं, वो सिद्ध थे—बड़े साधक। उन्होंने हवेली के नीचे एक गुफ़ा बनवाई थी, जहाँ वो ध्यान करते थे। उन्होंने एक रहस्य छिपाया था—एक खजाना नहीं, बल्कि एक ऊर्जा का स्रोत, जिसे केवल ‘वास्तविक इच्छाशक्ति’ वाला ही खोज सकता था।
अब अर्जुन का मन पढ़ाई से ज़्यादा उस गुफ़ा को खोजने में लग गया। उसने अपने दो दोस्तों, भीम और सलीम को साथ लिया और तीनों ने मिलकर पुरानी फावड़ियों से उस ढक्कन को हटाया। नीचे सीढ़ियाँ थीं, पत्थर की, जो अँधेरे में कहीं गुम होती जाती थीं।
तीनों ने हाथ में टॉर्च ली और सीढ़ियाँ उतरने लगे। नीचे एक लंबी सुरंग थी। दीवारों पर संस्कृत के श्लोक खुदे थे, और रास्ते में जगह-जगह छोटे-छोटे दीपक रखने की जगहें थीं। जैसे ही वे आगे बढ़े, हवा ठंडी और भारी होती गई। अंत में उन्हें एक गोल कमरा मिला, जहाँ बीच में एक शिवलिंग था और उसके चारों ओर जल भरा हुआ था। दीवार पर एक तख़्ती लटकी थी, जिस पर लिखा था:
“शुद्ध हृदय, निर्भय आत्मा और सच्चा स्वप्न—यही है ऊर्जा तक पहुँचने का मार्ग।”
अर्जुन को समझ आ गया कि यह कोई खजाना नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान का केंद्र था। शिवलिंग के पास एक छोटा सा पत्थर रखा था, जो हल्की नीली रोशनी में चमक रहा था। अर्जुन ने जैसे ही उसे छुआ, एक गूंज उसके कानों में गूंजी—“बूंदों की आवाज़।”
उसे जैसे अपनी पूरी ज़िंदगी की झलक दिखी—माँ की तकलीफ़ें, पिता का संघर्ष, गाँव की गरीबी, और अपनी महत्वाकांक्षाएँ। वह वहाँ कुछ देर बैठा रहा, ध्यान में लीन। उसकी आँखों से आँसू निकल रहे थे, मगर चेहरा शांत था। जैसे वह किसी और ही दुनिया से होकर लौटा हो।
अर्जुन ने उस अनुभव को कभी किसी को नहीं बताया। वह फिर कभी उस सुरंग में नहीं गया। मगर उसका जीवन बदल गया। वह पढ़ाई में लग गया, हर दिन पूरी लगन से मेहनत की, और धीरे-धीरे शहर तक पहुँचा। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, स्कॉलरशिप ली, और कुछ सालों में गाँव लौटकर वहाँ एक बड़ा स्कूल खोला—“शंकर विद्यापीठ”।
अब वह गाँव का आदर्श बन चुका था। लोग उससे सलाह लेते, बच्चे उसे गुरु मानते और उसकी माँ की आँखों में वह सुकून था, जो वर्षों से गायब था।
मगर अर्जुन अब भी बरसात की रातों में हवेली की ओर नज़र डालता, और धीमी-धीमी बूंदों की आवाज़ सुनता। वह जानता था, उस रात की गूँज अब उसकी आत्मा में बसी है।
एक और – Desi Kahani in Hindi

पीपल के नीचे: गाँव मुरादपुर की पहचान दो चीज़ों से थी — एक, वहाँ के पुराने तालाब से जो सूख चुका था, और दूसरा, चौपाल के बीचोंबीच खड़ा एक पीपल का पेड़, जिसकी छाया में सदियों से गाँव के बुज़ुर्गों ने फैसले सुनाए थे, शादियाँ तय की थीं, बच्चों ने झूले डाले थे और जवानों ने बगावतें सोची थीं।
इसी पीपल के नीचे, हर सुबह एक बूढ़ा बैठा करता था — नाम था धरमपाल। सफ़ेद कुर्ता, गाढ़ा चश्मा, और आँखों में वो झलक जो कभी ज़माने की आँखों में होती थी। कोई माने या न माने, लेकिन गाँव के बच्चे उसे “पीपल बाबा” कहते थे। कुछ को लगता था कि वो झक्की हैं, कुछ उन्हें भगवान का भेजा हुआ समझते थे। लेकिन बाबा बस चुपचाप बैठते थे, हर आने-जाने वाले को नमस्कार करते, और उनके झोले से हर किसी को कुछ-न-कुछ निकालकर देते — कभी किताब, कभी सिक्का, कभी ताबीज़, कभी एक कहानी।
धरमपाल का अपना परिवार नहीं था। पत्नी बहुत पहले गुजर चुकी थी, बेटा शहर चला गया था और फिर कभी लौटा नहीं। गाँव वालों ने कहा कि “बेटे की तरक्की देखकर बाबा ने उसे माफ़ कर दिया”, लेकिन हक़ीक़त ये थी कि बाबा हर हफ्ते गाँव की पोस्ट ऑफिस में चिट्ठी छोड़ते थे, जिसे कोई लेने नहीं आता।
लेकिन धरमपाल को शिकायत नहीं थी। उनका जीवन अब गाँव के बच्चों और लोगों की सेवा में बीतता था।
एक दिन गाँव की लड़की सावित्री, जो अब बारहवीं में पढ़ रही थी, पीपल के नीचे बैठी थी। बाबा ने उसे देखा और मुस्कराए।
“कुछ उलझन है बिटिया?”
सावित्री ने चुपचाप सिर हिला दिया।
“बोल ले। पेड़ के नीचे बोले शब्द पाप नहीं होते।”
सावित्री ने बड़ी हिम्मत से कहा, “बाबा, मुझे शहर जाकर पढ़ाई करनी है। कॉलेज में। पर अम्मा-बाऊजी नहीं मान रहे। कहते हैं लड़की को घर की चौखट से ज़्यादा क्या चाहिए?”
बाबा कुछ देर चुप रहे, फिर झोले से एक किताब निकाली। उसका नाम था “गाँधी की आत्मकथा”।
“ये पढ़। जब पढ़ ले, तब दोबारा आना। और तब मैं तुझे वो कहानी सुनाऊँगा, जिसने मुझे भी शहर जाने से रोका था।”
सावित्री किताब लेकर चली गई। अगले दो हफ्तों तक वो बाबा के पास नहीं आई।
बाबा रोज़ इंतज़ार करते, पीपल की छाया में बैठते, आते-जाते लोगों को टटोलते।
फिर एक दिन सावित्री लौट आई। चेहरे पर आत्मविश्वास था, आँखों में दृढ़ता।
“बाबा, मैंने किताब पढ़ ली। अब आप अपनी कहानी सुनाइए।”
बाबा ने सिर हिलाया, पास बैठे एक लड़के को पास से मिट्टी का कुल्हड़ लाने भेजा और फिर कहना शुरू किया।
“साल 1956 था। मेरा नाम तब धरम नहीं, धीरज था। शहर में पढ़ने गया था—इलाहाबाद विश्वविद्यालय। मेरे जैसे गाँव से गए कई लड़के वहाँ थे, लेकिन मेरे अंदर कुछ और ही आग थी। पढ़ाई में तेज़, लेकिन राजनीति में और भी तेज़।
कॉलेज में मैंने भाषण देना शुरू किया, नारे लगाए, जुलूस निकाले। मैं चाहता था कि देश बदले, समाज बदले। उसी दौरान एक लड़की मिली — रीमा। पढ़ाई में मुझसे भी तेज़, लेकिन मुझसे शांत। हम दोनों के विचार मिलते थे, लेकिन रास्ते अलग थे।
एक दिन कॉलेज के सामने दंगा भड़क गया। मैं भी भीड़ में था। पत्थर चले, लाठियाँ चलीं। रीमा ने मुझे खींचकर पीछे किया, लेकिन मुझे चोट लग गई। उस दिन के बाद, मैं समझ गया कि लड़ाई मैदान में नहीं, कलम में है।
मैं घर लौटा। शादी हुई, बेटा हुआ। लेकिन फिर वही राजनीति, वही भाषण, वही संघर्ष। मैंने समय को अपने बेटे से चुरा लिया।
वो बड़ा हुआ, और एक दिन घर छोड़कर चला गया। आख़िरी चिट्ठी में लिखा था — “बाबा, आपने देश को पिता माना, और मुझे अनाथ कर दिया।”
उस दिन से मैं इस पीपल के नीचे बैठा हूँ। और अब हर बच्चे में अपने बेटे को खोजता हूँ।”
सावित्री की आँखें भर आईं।
“बाबा, आपने तो बहुत बड़ा त्याग किया…”
धरमपाल हँसे — एक थकी हुई, लेकिन सच्ची मुस्कान।
“नहीं बिटिया, त्याग नहीं। समझौता। अब तू बता—शहर जाएगी?”
सावित्री ने धीरे से कहा, “हाँ बाबा, अब डर नहीं लगता।”
“तो जा। लेकिन हर महीने एक चिट्ठी भेजना।”
साल बीते। सावित्री शहर गई, और उसने वादा निभाया। हर महीने एक चिट्ठी पीपल बाबा के नाम आती, जिसमें वो अपने संघर्ष, उपलब्धियाँ और सपनों का ज़िक्र करती।
बाबा उन चिट्ठियों को पढ़ते और हर बच्चे को सुनाते — जैसे ये उसकी नहीं, पूरे गाँव की कहानी हो।
एक दिन सावित्री गाँव लौटी। अब वो एक शिक्षक बन चुकी थी। उसने गाँव में एक छोटी लाइब्रेरी शुरू की — पीपल के ठीक नीचे।
पहली किताब जो वहाँ रखी गई, वो वही थी जो बाबा ने दी थी — “गाँधी की आत्मकथा”, और उसके नीचे एक पंक्ति लिखी थी:
“जहाँ बूंद गिरे, वहीं हरियाली होती है। बस ज़रूरत है, मिट्टी को तैयार करने की।”
धरमपाल अब इस दुनिया में नहीं थे। लेकिन पीपल अब भी वहाँ खड़ा था, और उसकी छाया में कहानियाँ अब भी जन्म लेती थीं।