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सपनों की उड़ान » Desi Tales Hindi

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ख्वाबों की सच्ची कहानी » Desi Tales Hindi

गाँव के सर्दीले सवेरे थे। धूप धीरे-धीरे सरकती थी और खेतों पर ओस की बूँदें चमकती थीं। पगडंडी के किनारे खड़ा था अर्जुन — 24 साल का एक शांत, कम बोलने वाला लड़का। उसका रंग गेंहुआ, आँखें गहरी और बाल अक्सर उलझे रहते थे। वो अपने खेत की मेड़ पर बैठकर चाय पी रहा था और सामने दूर बकरी चरा रही लड़की को देख रहा था।

वो लड़की थी रूपा — गाँव की सबसे चंचल और हँसमुख लड़की। उसकी हँसी में कुछ ऐसा था जो खेतों को भी मुस्कुरा दे। रोज़ सुबह वो अपने छोटे भाई के साथ बकरियाँ लेकर निकलती, पेड़ के नीचे बैठती, और चुपचाप कुछ कागज़ों में लिखती। अर्जुन को उसकी ये आदत बहुत अजीब लगती थी — “गाँव की लड़की, और ये कागज़-किताबें?”

पर एक दिन जब हवा तेज़ थी, और रूपा की एक कॉपी उड़कर अर्जुन के पास आ गिरी, तब अर्जुन को उसके बारे में पहली बार थोड़ा ज़्यादा पता चला।

उसने कॉपी उठाई। खोलकर देखा तो उसमें हाथ से लिखी हुई कविताएँ थीं। एक पंक्ति थी —
“मैं हूँ मिट्टी की बेटी, पर ख्वाब हैं आसमान के।”

अर्जुन अचंभे में था। उसी पल रूपा दौड़ती आई —
“वो… वो मेरी कॉपी…”
अर्जुन ने बिना कुछ बोले वो कॉपी लौटा दी।
रूपा थोड़ी घबराई, “तुमने कुछ पढ़ा?”
“थोड़ा… अच्छा लिखती हो,” अर्जुन ने पहली बार मुस्कराकर कहा।

उस दिन के बाद से कुछ बदल गया था। अर्जुन अब रूपा को सिर्फ एक चरवाहिन नहीं, एक सोचने-समझने वाली, अलग सी लड़की मानने लगा। और रूपा भी कभी-कभी अर्जुन के खेत के पास बैठने लगी, वो वहीं मेड़ पर बैठता, चुपचाप सुनता — उसकी कविताएँ, सपने, और कभी-कभी उसकी नाराज़गी भी।

एक दिन रूपा ने पूछा, “तुम्हें कभी शहर जाने का मन नहीं करता?”
अर्जुन बोला, “शहर मेरे बस का नहीं… पर तू जाना चाहती है?”
“हाँ… एक दिन कविताओं की किताब छपवानी है, और… रेडियो पर सुननी है अपनी आवाज़।”

अर्जुन को कुछ नहीं सूझा, बस बोला — “तेरे सपने अच्छे हैं।”

फिर कुछ हफ़्तों तक रूपा नहीं दिखी।

अर्जुन परेशान हो उठा। रोज़ उसकी निगाहें उस पेड़ की तरफ जातीं, पर न रूपा दिखती, न उसकी बकरियाँ। गाँव में चर्चा शुरू हुई — “रूपा के पिता ने उसे पढ़ाई छोड़वा दी।”
किसी ने कहा — “किसी शहर वाले रिश्ते की बात चल रही है।”
अर्जुन को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था।

एक दिन शाम को जब खेत से लौट रहा था, तभी पगडंडी पर अचानक सामने रूपा आ खड़ी हुई। उसका चेहरा थका हुआ था, आँखें सूजी हुई।

“कहाँ थी तू?” — ये पूछने की हिम्मत अर्जुन में नहीं हुई।
पर रूपा ने खुद ही कहा — “पढ़ाई बंद करवा दी। शहर जाना अब सपना ही रहेगा।”

वो चुपचाप खड़ी रही, जैसे अंदर से टूट गई हो। अर्जुन को पहली बार उसकी हँसी के पीछे का दर्द दिखा।

वो बोली — “तू तो खुश होगा… अब कविताएँ नहीं सुननी पड़ेंगी…”
अर्जुन ने हल्के से कहा — “नहीं… अब तेरे बिना खेत भी सूने लगते हैं।”

वो पल थोड़ी देर को रुक गया।
रूपा की आँखें अर्जुन की आँखों से मिलीं, पहली बार बिना हँसी के, सीधी, गहरी।

अर्जुन ने पूछा — “अगर तुझे पढ़ने का मौका मिले, तो जाएगी?”
रूपा ने धीमे से कहा — “हाँ… अगर कोई भरोसा दे तो…”

अर्जुन ने सिर झुकाया और बोला —
“तो कर ले मुझपे थोड़ा भरोसा… कुछ करूँगा तेरे लिए।”

उस दिन से अर्जुन ने अपने खेत में मेहनत दुगुनी कर दी। कुछ बचाया, कुछ पुरानी जमीन बेच दी, और कुछ माँ-बाप से झगड़कर निकाला। वो जानता था, ज़्यादा नहीं कर सकता — लेकिन अगर रूपा की कविताओं को उड़ने के लिए एक पंख चाहिए, तो वो मिट्टी ही सही… वो पंख बन जाएगा।

सर्दियाँ ढलने लगी थीं और खेतों में सरसों की पीली चादर बिछ चुकी थी। अर्जुन की मेहनत रंग ला रही थी — वह दिन-रात खेत में जुटा रहता, और जब थक जाता, तो एक खलिहान की दीवार से टिककर रूपा की पुरानी कॉपी पढ़ता।

रूपा अब रोज़ नहीं आती थी, पर कभी-कभी जब चुपके से मिलती, उसकी आँखों में उम्मीद की हल्की लौ होती।

एक दिन रूपा ने पूछा, “कहीं ये सब पागलपन तो नहीं अर्जुन?”
अर्जुन मुस्कराया, “अगर तेरा सपना पागलपन है, तो मैं भी पागल हूँ।”

उसी शाम अर्जुन शहर गया — पहली बार। उसके पास बस कुछ पैसे थे और रूपा की दो कविताएँ, जो उसने साफ़ काग़ज़ में लिखवाई थीं। वह शहर के एक छोटे पब्लिशर के पास पहुँचा, जिसका पता रूपा ने एक मैगज़ीन में देखा था।

पब्लिशर ने उसकी हालत देखकर पहले तो ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब अर्जुन ने वह कविताएँ दिखाई, तो उसने ध्यान से पढ़ा, फिर बोला,
“जिसने ये लिखा है, उसमें दम है। पर छापने के लिए कम से कम पाँच हज़ार चाहिए।”

अर्जुन ने जेब से मुड़ा-तुड़ा थैला निकाला — उसमें करीब तीन हज़ार थे।
“इतना ही है अभी… आगे कुछ बेच लूँगा तो और लाऊँगा।”

पब्लिशर कुछ पल उसे देखता रहा, फिर बोला, “इतनी शिद्दत से जो आया है, उसके लिए मैं छूट देता हूँ। तीन हज़ार में कुछ सीमित कॉपीज़ छाप देंगे… नाम क्या देना है लेखिका का?”

अर्जुन ने धीरे से कहा — “रूपा चौधरी।”


एक महीने बाद गाँव में पहली बार एक किताब आई — पतली-सी, लाल कवर वाली, जिसके ऊपर लिखा था:
“मिट्टी की कविताएँ — रूपा चौधरी”

अर्जुन ने वो पहली कॉपी जब रूपा को दी, तो वह हतप्रभ रह गई।

“ये… ये क्या है?” — उसने काँपती आवाज़ में पूछा।
“तेरे सपनों की पहली सीढ़ी,” अर्जुन ने कहा।

रूपा की आँखों से आँसू बहने लगे — ऐसे आँसू, जो न रोने में थे, न मुस्कुराने में — सिर्फ यकीन में थे।

“तूने… मेरे लिए ये सब किया?”
“तेरे शब्दों में जान है रूपा। उन्हें किसी को सुनना था। और मुझे सिर्फ बहाना चाहिए था तेरे पास आने का।”

उस दिन दोनों गाँव की सबसे ऊँची पहाड़ी पर बैठे — एक तरफ पीले खेत, दूसरी तरफ खुला आसमान।
रूपा ने धीरे से अर्जुन का हाथ थामा और कहा —
“अगर तू साथ है, तो मैं अपने ख्वाबों से अब डरती नहीं।”


अब गाँव के लोग भी बात करने लगे थे —
“अर्जुन का दिल सच्चा है…”
“रूपा को पढ़ने दो… लड़की में कुछ बात है…”

वक्त बदला, तो सोच भी बदली।

रूपा को पास के ज़िले के कॉलेज में दाख़िला मिल गया। अर्जुन रोज़ नहीं मिल पाता, पर हर शुक्रवार शाम को बस स्टैंड पर इंतज़ार करता, जब रूपा घर लौटती।

बस से उतरते ही रूपा सबसे पहले अर्जुन को ढूँढती — कभी खलिहान के किनारे, कभी तालाब के पास।

कहती — “आज एक नई कविता सुनाऊँ?”
अर्जुन कहता — “पहले चाय पिला… फिर जो चाहे सुना।”

रूपा की किताब की कुछ कॉपीज़ गाँव के बाहर भी पहुँची थीं। एक दिन शहर से एक रेडियो चैनल का कॉल आया।
“हम आपकी कविताएँ सुनना चाहते हैं, लाइव।”

रूपा का सपना, जो कभी सिर्फ एक पेड़ के नीचे बकरियाँ चराते हुए लिखा गया था — अब उसे हवा मिल चुकी थी।

पर जैसे ही सबकुछ ठीक होने लगा था, तभी एक नया तूफ़ान उठ खड़ा हुआ।

रूपा के पिता को शहर से एक रिश्ता आया — बहुत पैसेवाला लड़का था, पर दिल से खोखला।

“शादी कर दो, आगे की ज़िंदगी सुधर जाएगी,” किसी ने समझाया।

रूपा गुस्से में थी, पर डर भी थी। अर्जुन को बताने की हिम्मत नहीं थी।

एक शाम उसने अर्जुन को बुलाया।
“कुछ कहना है… शायद आख़िरी बार।”

अर्जुन समझ गया — कुछ ग़लत होने वाला है।

रूपा बोली —
“अगर मैं कुछ कहूँ और तू नाराज़ हो जाए, तो?”
अर्जुन बोला — “तू कह… मैं खुद से नाराज़ नहीं होने दूँगा।”

रूपा ने कांपती आवाज़ में कहा —
“अब्बा मेरी शादी तय कर रहे हैं… अगले महीने…”

अर्जुन की आँखें बस उसे देखती रहीं — कुछ कह न सका।

वो रात लम्बी थी। हवा में सन्नाटा था, और खेतों के बीच दो दिलों की धड़कनें साफ़ सुनाई देती थीं।

रूपा ने पूछा —
“अगर मैं भाग जाऊँ… तो तू साथ देगा?”
अर्जुन बोला — “अगर तू भागेगी… तो मैं रास्ता बन जाऊँगा।”

शादी की तारीख़ करीब आ रही थी। गाँव के चौक पर बातें गूंजने लगी थीं —
“रूपा की शादी बड़े शहर में हो रही है।”
“अर्जुन का चेहरा बुझा-बुझा सा है।”
“सच्ची मोहब्बत हार रही है शायद…”

पर अर्जुन खामोश था। वो वही अर्जुन था जो मिट्टी से सपने बोता था, पर अब उसकी आंखों में तूफ़ान पल रहा था।

रूपा की हालत और भी बुरी थी। वो न पढ़ पा रही थी, न लिख पा रही थी। हर कागज़ को फाड़ दे रही थी जैसे शब्दों ने भी साथ छोड़ दिया हो। लेकिन उसके मन में एक ही बात थी — क्या अर्जुन सच में उसके लिए सबकुछ छोड़ सकता है?

शादी से दो दिन पहले की रात, रूपा ने अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखा — अर्जुन वही खड़ा था, खेत की मेड़ पर, बिना कुछ कहे, बस उसकी खिड़की की तरफ देखता हुआ।

उसने धीरे से खिड़की खोली और एक फटी हुई कॉपी की कागज़ी परची नीचे फेंकी।

अर्जुन ने झुका, पढ़ा:
“कल सुबह पाँच बजे बस स्टैंड… अगर तू साथ है तो मैं तैयार हूँ उड़ने के लिए।”


सुबह 4:45 बजे। कोहरा पूरे गाँव पर छाया हुआ था। पर अर्जुन का रास्ता साफ़ था।
वो अपनी साइकिल लिए बस स्टैंड पहुँचा, और कुछ देर बाद एक सादा-सी सलवार सूट में, आँखों में आँसू और होठों पर उम्मीद लिए रूपा वहाँ पहुँची।

“सच में चलेगा?”
“तू साथ है, बस और कुछ नहीं चाहिए।”

बस आई। दोनों चुपचाप उसमें बैठ गए। गाँव धीरे-धीरे पीछे छूटता जा रहा था — वो पगडंडियाँ, वो मेड़, वो पुरानी दीवारें… सबकुछ।

कई घंटे बाद शहर की हलचल शुरू हुई। दोनों ने किराए पर एक छोटा-सा कमरा लिया। अर्जुन ने वहीं पास के ढाबे में काम पकड़ लिया, और रूपा ने शहर के सरकारी कॉलेज में एडमिशन लिया — एक साल पीछे से सही, लेकिन अपने दम पर।

रूपा की किताबों का दूसरा संस्करण छपा। अब उसमें लेखक परिचय के हिस्से में लिखा था:

“रूपा चौधरी — मिट्टी की कवयित्री, जिसने अपने सपनों को अपने प्यार की गोद में पाला है।”

रेडियो स्टेशन पर उसका लाइव इंटरव्यू हुआ। पहली बार उसने माइक पर कहा:

“मैं अपनी आवाज़ उन सभी लड़कियों को देना चाहती हूँ, जो सपने देखती हैं — और उन लड़कों को धन्यवाद जो चुपचाप उन सपनों को सींचते हैं।”

अर्जुन उस दिन रेडियो की दुकान के बाहर खड़ा, कानों में ईयरफोन लगाए, उसकी आवाज़ सुन रहा था।
रूपा बोली:
“और अंत में… मैं किसी का नाम लेना चाहती हूँ — जिसने मेरी उड़ान को पंख नहीं, पूरा आसमान दिया। अर्जुन, ये सिर्फ मेरी कहानी नहीं, हमारी कहानी है।”


अब पाँच साल बीत चुके हैं।

शहर में एक छोटा सा प्रकाशन हाउस है — “मिट्टी की महक”
उसका मालिक अर्जुन है, और संपादक रूपा।

वो अब भी साथ रहते हैं — अब पति-पत्नी नहीं सिर्फ़, बल्कि दो ऐसे साथी जो एक-दूसरे के सपनों की ज़मीन और छत दोनों बने।

हर रविवार, वो गाँव लौटते हैं — वही पगडंडी, वही पेड़, वही मेड़।
और वहीं बैठकर रूपा अब भी लिखती है — अर्जुन अब भी चाय पकाता है।

रूपा कहती है —
“हम भागे नहीं थे, हम बस वहाँ से चले गए थे… जहाँ हमारे लिए कोई जगह नहीं थी।”

और अर्जुन जवाब देता है —
“और अब हम वहीं पहुँच चुके हैं… जहाँ सिर्फ़ हमारी कहानी है।”

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